पटाखो कि दुकान से दूर हाथों मे,
कुछ सिक्के गिनते मैने उसे देखा…
एक गरीब बच्चे कि आखों मे,
मैने दिवाली को मरते देखा.
थी चाह उसे भी नए कपडे पहनने की…
पर उन्ही पूराने कपडो को मैने उसे साफ करते देखा.
तुमने देखा कभी चाँद पर बैठा पानी?
मैने उसके रुखसर पर बैठा देखा.
हम करते है सदा अपने ग़मो कि नुमाईश…
उसे चूप-चाप ग़मो को पीते देखा.
थे नही माँ-बाप उसके..
उसे माँ का प्यार और पापा के हाथों की कमी मेहंसूस करते देखा.
जब मैने कहा, “बच्चे, क्या चहिये तुम्हे”?
तो उसे चुप-चाप मुस्कुरा कर “ना” मे सिर हिलाते देखा.
थी वह उम्र बहुत छोटी अभी…
पर उसके अंदर मैने ज़मीर को पलते देखा
रात को सारे शहर कि दीपो कि लौ मे…
मैने उसके हसते, मगर बेबस चेहरें को देखा.
हम तो जीन्दा है अभी शान से यहा.
पर उसे जीते जी शान से मरते देखा.
नामकूल रही दिवाली मेरी…
जब मैने जिदगी के इस दूसरे अजीब से पहेलु को देखा.
कोई मनाता है जश्न
और कोई रेहता है तरसता…
मैने वो देखा..
जो हम सब ने देख कर भी नही देखा.
लोग कहते है, त्योहार होते है जिदगी मे खूशीयो के लिए,
तो क्यो मैने उसे मन ही मन मे घूटते और तरसते देखा ?
Source: Whatsap msg
Categories: Poems / कविताए, SELF / स्वयं
nice one !